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नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन }} नील :::गगन भेदती, धवल :::बादल-कु…
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
}}
नील
:::गगन भेदती,
धवल
:::बादल-कुँहरे में धँसी,
सत्य पर अर्ध सत्य, फिर अर्ध स्वप्न-सी खड़ी
चोटियों का आमंत्रण-
जैसे बंसी-टेर
:::कभी पुचकार,
:::कभी मनुहार,
:::कभी अधिकार
:::जनाती बुला रही है।
यह हिरण!
चार चरणों पर
विद्युत्-किरण
धरा की धीरे-धीरे उठन,
क्षितिज पर पल-पल नव सिहरन।
हिरण का चाल
:::हवा से होड़,
चौकड़ी से नपता भू-खंड
झारियाँ-झुरमुट-लता-वितान,
कुंज पर कुंज;
अभी, ले, इस चढ़व का ओर,
अभी, ले, उस उतार का छोर;
और अब निर्झर-शीतल तीर,
ध्वनित गिरि-चरणों में मंजीर,
:::स्फटिक-सा नीर,
:::तृषा कर शांत,
भ्रांत, ऊपर से ही तो फूट
:::अमृत की धार बही है।
यह घोड़ा!
जिस पर न सवारी
:::कभी किसी ने गाँठी,
गाड़ी खिंचवाकर
:::नहीं गया जो तोड़ा,
जो वन्य, पर्वती, उद्धृत,
जिसको छू न सका है
:::कभी किसी का कोड़ा।
(यह अर्द्ध सत्य;
भीतर जो चलता उसे किसी ने देखा?)
अब लेता श्रंग उठानें,
चट्टानों के ऊपर चढ़ती चट्टानें।
टापों के नीचे
:::वे टप-टप-टप करतीं
ध्वनियाँ, प्रतिध्वनियाँ
:::घाटी-घाटी भरतीं।
वह ऊपर-ऊपर चढ़ा निरंतर जाता,
वह कहीं नहीं क्षणभर को भी सुस्ताता
ले, देवदारु बन आया;
सुखकर, श्रमहार
होती है इसकी छाया।
हर चढ़नेवाला पाता ही है चोटी-
पगले
:::तुझसे किसने यह बात कहीं है?
यह हाथी!
बाहर-भीतर यह कितना भरकम-भारी!
जैसे जीवन की की सब घडि़याँ,
सब सुधियाँ, उपलब्धियाँ,
दु:ख-सुख, हार-जीत,
चिंता, शंकाएँ सारी,
हो गई भार में परिवर्तित,
वृद्धावस्था की काया में, मन में संचित।
अब सीढ़ी-सीढ़ी खड़ी हुई हैं
:::हिम से ढँकी शिलाएँ
अब शीत पवन के झकझोरे
लगते हैं आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ,
अब धुंध-कुहासे में हैं
:::खोई-खोई हुई दिशाएँ।
अब पथ टटोलकर चलना है,
चलना तो, ऊपर चढ़ना है,
हर एक क़दम,
पर, ख़ूब संभलकर धरना है।
(सबसे भारी अंकुश होता है भार स्वयं)
सब जगती देख रही है;
गजराज फिसलकर गिरा हुआ!-
दुनिया का कोई दृश्य
बंधु, इससे दयनीय नहीं है।
{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
}}
नील
:::गगन भेदती,
धवल
:::बादल-कुँहरे में धँसी,
सत्य पर अर्ध सत्य, फिर अर्ध स्वप्न-सी खड़ी
चोटियों का आमंत्रण-
जैसे बंसी-टेर
:::कभी पुचकार,
:::कभी मनुहार,
:::कभी अधिकार
:::जनाती बुला रही है।
यह हिरण!
चार चरणों पर
विद्युत्-किरण
धरा की धीरे-धीरे उठन,
क्षितिज पर पल-पल नव सिहरन।
हिरण का चाल
:::हवा से होड़,
चौकड़ी से नपता भू-खंड
झारियाँ-झुरमुट-लता-वितान,
कुंज पर कुंज;
अभी, ले, इस चढ़व का ओर,
अभी, ले, उस उतार का छोर;
और अब निर्झर-शीतल तीर,
ध्वनित गिरि-चरणों में मंजीर,
:::स्फटिक-सा नीर,
:::तृषा कर शांत,
भ्रांत, ऊपर से ही तो फूट
:::अमृत की धार बही है।
यह घोड़ा!
जिस पर न सवारी
:::कभी किसी ने गाँठी,
गाड़ी खिंचवाकर
:::नहीं गया जो तोड़ा,
जो वन्य, पर्वती, उद्धृत,
जिसको छू न सका है
:::कभी किसी का कोड़ा।
(यह अर्द्ध सत्य;
भीतर जो चलता उसे किसी ने देखा?)
अब लेता श्रंग उठानें,
चट्टानों के ऊपर चढ़ती चट्टानें।
टापों के नीचे
:::वे टप-टप-टप करतीं
ध्वनियाँ, प्रतिध्वनियाँ
:::घाटी-घाटी भरतीं।
वह ऊपर-ऊपर चढ़ा निरंतर जाता,
वह कहीं नहीं क्षणभर को भी सुस्ताता
ले, देवदारु बन आया;
सुखकर, श्रमहार
होती है इसकी छाया।
हर चढ़नेवाला पाता ही है चोटी-
पगले
:::तुझसे किसने यह बात कहीं है?
यह हाथी!
बाहर-भीतर यह कितना भरकम-भारी!
जैसे जीवन की की सब घडि़याँ,
सब सुधियाँ, उपलब्धियाँ,
दु:ख-सुख, हार-जीत,
चिंता, शंकाएँ सारी,
हो गई भार में परिवर्तित,
वृद्धावस्था की काया में, मन में संचित।
अब सीढ़ी-सीढ़ी खड़ी हुई हैं
:::हिम से ढँकी शिलाएँ
अब शीत पवन के झकझोरे
लगते हैं आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ,
अब धुंध-कुहासे में हैं
:::खोई-खोई हुई दिशाएँ।
अब पथ टटोलकर चलना है,
चलना तो, ऊपर चढ़ना है,
हर एक क़दम,
पर, ख़ूब संभलकर धरना है।
(सबसे भारी अंकुश होता है भार स्वयं)
सब जगती देख रही है;
गजराज फिसलकर गिरा हुआ!-
दुनिया का कोई दृश्य
बंधु, इससे दयनीय नहीं है।