भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
रक्तधार से रँगते रहते थे रेती कट मर कर!
मद अधीर ऊँटों की गति से प्रेरित प्रिय छंदों पर
गीत गुनगुनाते थे जन निर्जन ओ को स्वप्नों से भराभर!
वहाँ उच्च कुल में जनमे जन्मे तुम दीन कुरेशी के घर
बने गड़रिए, तुम्हें जान प्रभु, भेड़ नवाती थी सर!
हँस उठती थी हरित दूब मरु में प्रिय पदतल छूकर