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{{KKRachna
|रचनाकार=विष्णु नागर
|संग्रह=घर से बाहर घर / विष्णु नागर
}}
<poem>
कभी लगता है आसमान में उड़ूं
तो इतना ऊपर उडूं
कि किसी को नजर न आए
कि मैं उड़ रहा हूं
कभी लगता है चलूं
तो इतना चलूं, इतना चलूं
कि पूरी धरती नाप लूं
न कोई पहाड़ छूटे, न कोई शहर
एक झोपड़ा भी इसलिए न छूटे
कि वहां क्या है सिवाय एक झोपड़े और दो-चार लोगों के
कभी लगता है
कि ऐसी इच्छा मन में रहे
यह कितना अच्छा है
मैं मर जाऊं
पर ये इच्छा मर न जाये!
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|रचनाकार=विष्णु नागर
|संग्रह=घर से बाहर घर / विष्णु नागर
}}
<poem>
कभी लगता है आसमान में उड़ूं
तो इतना ऊपर उडूं
कि किसी को नजर न आए
कि मैं उड़ रहा हूं
कभी लगता है चलूं
तो इतना चलूं, इतना चलूं
कि पूरी धरती नाप लूं
न कोई पहाड़ छूटे, न कोई शहर
एक झोपड़ा भी इसलिए न छूटे
कि वहां क्या है सिवाय एक झोपड़े और दो-चार लोगों के
कभी लगता है
कि ऐसी इच्छा मन में रहे
यह कितना अच्छा है
मैं मर जाऊं
पर ये इच्छा मर न जाये!