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18:42, 28 मई 2016
|रचनाकार=वसीम बरेलवी
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[[Category:गज़ल]]{{KKCatGhazal}}<poem>जरा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है,समंदरो ही के लहजे में बात करता है।
ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है<br>समन्दरों ही खुली छतों के लहजे में बात करता दियें कब के बुझ गये होते,कोई तो है<br><br>जो हवाओं के पर कतरता है।
ख़ुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते<br>शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं, किसी का कुछ न बिगाड़ो तो है जो हवाओं के पर कतरता है<br><br>कौन डरता है।
शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं<br>किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता ये देखना है<br><br>कि सहरा भी है समुंदर भी,वो मेरी तिश्ना-लबी किस के नाम करता है।
ज़मीं की कैसी विक़ालत तुम आ गए हो फिर नहीं चलती<br>तो कुछ चाँदनी सी बातें हों,जब आस्मान से कोई फ़ैसला ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है<br><br>है।
तुम आ गये जमीं की कैसी वकालत हो तो फिर कुछ चाँदनी सी बातें हों<br>नहीं चलती, ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ जब आसमाँ से कोई फैसला उतरता है<br>है।<br/poem>