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सोच / विजय कुमार पंत

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सोच / विजय कुमार पंत
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कितना विकराल होता है
सोच का दायरा
अक्सर तार -तार होते रहते
हैं उसमें
बड़े एहतियात से पहने
कपड़े
तुम कहते हो नग्नता
पाप है ,
मैं कहता हूँ
एक विकृत दिमाग का
अभिशाप है

क्या शारीर को
ढांप -छुपा कर रखना
ही सभ्यता है ??
या सोच मैं ही
असभ्यता है ??

ज़ुलू लोग असभ्य नहीं
होते
उनके पास वस्त्र भी नहीं
होते
होती है तो एक चमकदार सोच
जो शारीर से परे
आत्मा में कहीं गहरे
घर बना लेती है
इसलिए उनको फालतू की
शर्मिंदगी नहीं होती..

</poem>
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