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Kavita Kosh से
हर किसी की मन- मृत्तिका
इतनी उपजाऊ है कि
बंद मुट्ठी की रेत हो जाती है
इस पर चढ़कर
बहुत प्राय: अनापके अनपके ही रह गए फलों को
मार जाता है विनाश का पाला,
स्वत: ही सूखकर
कौन मानेगा मेरा कहा कि
बाज आ जाओ इसकी छाया में जीने से
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