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सन्नाटा / भवानीप्रसाद मिश्र

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लेखक: [[भवानीप्रसाद मिश्र]]
[[Category:भवानीप्रसाद मिश्र]]

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तो पहले अपना नाम बता दूँ तुमको,<br>
फिर चुपके चुपके धाम बता दूँ तुमको<br>
तुम चौंक नहीं पड़ना, यदि धीमे धीमे<br>
मैं अपना कोई काम बता दूँ तुमको।<br><br>

कुछ लोग भ्रान्तिवश मुझे शान्ति कहते हैं,<br>
निस्तब्ध बताते हैं, कुछ चुप रहते हैं<br>
मैं शांत नहीं निस्तब्ध नहीं, फिर क्या हूँ<br>
मैं मौन नहीं हूँ, मुझमें स्वर बहते हैं।<br><br>

कभी कभी कुछ मुझमें चल जाता है,<br>
कभी कभी कुछ मुझमें जल जाता है<br>
जो चलता है, वह शायद है मेंढक हो,<br>
वह जुगनू है, जो तुमको छल जाता है।<br><br>

मैं सन्नाटा हूँ, फिर भी बोल रहा हूँ,<br>
मैं शान्त बहुत हूँ, फिर भी डोल रहा हूँ<br>
यह सर सर यह खड़ खड़ सब मेरी है<br>
है यह रहस्य मैं इसको खोल रहा हूँ।<br><br>

मैं सूने में रहता हूँ, ऐसा सूना,<br>
जहाँ घास उगा रहता है ऊना-ऊना<br>
और झाड़ कुछ इमली के, पीपल के<br>
अंधकार जिनसे होता है दूना।<br><br>

तुम देख रहे हो मुझको, जहाँ खड़ा हूँ,<br>
तुम देख रहे हो मुझको, जहाँ पड़ा हूँ<br>
मैं ऐसे ही खंडहर चुनता फिरता हूँ<br>
मैं ऐसी ही जगहों में पला, बढ़ा हूँ।<br><br>

हाँ, यहाँ किले की दीवारों के ऊपर,<br>
नीचे तलघर में या समतल पर, भू पर<br>
कुछ जन श्रुतियों का पहरा यहाँ लगा है,<br>
जो मुझे भयानक कर देती है छू कर।<br><br>

तुम डरो नहीं, डर वैसे कहाँ नहीं है,<br>
पर खास बात डर की कुछ यहाँ नहीं है<br>
बस एक बात है, वह केवल ऐसी है,<br>
कुछ लोग यहाँ थे, अब वे यहाँ नहीं हैं।<br><br>

यहाँ बहुत दिन हुए एक थी रानी,<br>
इतिहास बताता उसकी नहीं कहानी<br>
वह किसी एक पागल पर जान दिये थी,<br>
थी उसकी केवल एक यही नादानी!<br><br>

यह घाट नदी का, अब जो टूट गया है,<br>
यह घाट नदी का, अब जो फूट गया है<br>
वह यहाँ बैठकर रोज रोज गाता था,<br>
अब यहाँ बैठना उसका छूट गया है।<br><br>

शाम हुए रानी खिड़की पर आती,<br>
थी पागल के गीतों को वह दुहराती<br>
तब पागल आता और बजाता बंसी,<br>
रानी उसकी बंसी पर छुप कर गाती।<br><br>

किसी एक दिन राजा ने यह देखा,<br>
खिंच गयी हृदय पर उसके दुख की रेखा<br>
यह भरा क्रोध में आया और रानी से,<br>
उसने माँगा इन सब साँझों का लेखा।<br><br>

रानी बोली पागल को जरा बुला दो,<br>
मैं पागल हूँ, राजा, तुम मुझे भुला दो<br>
मैं बहुत दिनों से जाग रही हूँ राजा,<br>
बंसी बजवा कर मुझको जरा सुला दो।<br>v

वह राजा था हाँ, कोई खेल नहीं था,<br>
ऐसे जवाब से उसका मेल नहीं था<br>
रानी ऐसे बोली थी, जैसे उसके<br>
इस बड़े किले में कोई जेल नहीं था।<br><br>

तुम जहाँ खड़े हो, यहीं कभी सूली थी,<br>
रानी की कोमल देह यहीं झूली थी<br>
हाँ, पागल की भी यहीं, यहीं रानी की,<br>
राजा हँस कर बोला, रानी भूली थी।<br><br>

किन्तु नहीं फिर राजा ने सुख जाना,<br>
हर जगह गूँजता था पागल का गाना<br>
बीच बीच में, राजा तुम भूले थे,<br>
रानी का हँसकर सुन पड़ता था ताना।<br><br>

तब और बरस बीते, राजा भी बीते,<br>
रह गये किले के कमरे कमरे रीते<br>
तब मैं आया, कुछ मेरे साथी आये,<br>
अब हम सब मिलकर करते हैं मनचीते।<br><br>

पर कभी कभी जब पागल आ जाता है,<br>
लाता है रानी को, या गा जाता है<br>
तब मेरे उल्लू, साँप और गिरगिट पर<br>
अनजान एक सकता-सा छा जाता है।<br><br>
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