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सद्भावना / विजय कुमार पंत
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फिर से
उड़ने लगा है धुवाँ धुआँ ..
सुलगने लगी है झाड़ - फूंस..
सुना है तुम भी पैनी कर रहे हो
जानते हो क्यों..
क्योंकि ..
तुम्हारा अहं है.. सारथिसारथी..
तुम्हारी बुद्धि का..
तुम्हारी पिपासा ने
अपशब्दों..
और अस्त्रों से
सामर्थ्य.. सद्भावसद्‍भाव.. और विचार नहीं..
केवल शरीर मरता है..
फिर भी तुम
मैं संभावना हूँ..
मैं एक शरीर... एक संगठन... एक विचार नहीं..
"सृजन और सहयोग" की सद्भावना सद्‍भावना हूँ
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