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{{KKRachna
|रचनाकार=चंद्रभानु भारद्वाज
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<poem>
कमजोर पत्थर के बने आधार भी देखे,
ढहते हुए पुख्ता दरो-दीवार भी देखे।

ढलता न था सूरज जहाँ होती न थीं रातें,
मिटते हुए वे राज वे दरबार भी देखे।

जकड़े हुए थे प्यार की जंजीर में युग से,
इस दौर में वे टूटते परिवार भी देखे।

बाजार सब को तौलता है अब तराजू में,
फन बेचते अपना यहाँ फनकार भी देखे।

सम्मान होना था शहीदों देश-भक्तों का,
पर मंच पर बैठे हुए गद्दार भी देखे।

जो एक मृग-तृष्णा लिये बस भागती फिरती,
इस ज़िन्दगी के टूटते एतबार भी देखे।

सूखी टहनियों पर बने थे दाग पत्थर के,
उजड़े चमन ने पेड़ वे फलदार भी देखे।

लौटा शहर से गाँव तो भीगी पलक देखीं,
यादें खड़ी थीं मौन वे घर-बार भी देखे।

यह प्यार 'भारद्वाज' सदियों की कहानी है,
छलते इस इकरार भी इनकार भी देखे।
</poem>
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