भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चंद्रभानु भारद्वाज |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> कल्पनाओ…
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=चंद्रभानु भारद्वाज
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
कल्पनाओं में सुनहरा रंग कब भरने दिया;
कामनाओं को यहाँ उन्मुक्त कब उड़ने दिया।
चाहते थे ज़िन्दगी तो ज़िन्दगी ही छीन ली,
मौत चाही तो सहज सी मौत कब मरने दिया।
खूबियों के साथ में कुछ खामियाँ भी बाँध दीं,
खामियों को खूबियों से दूर कब करने दिया।
पार कर मझधार कश्ती तो किनारे लग गई,
पर किनारों ने कहीं भी पाँव कब धरने दिया।
गर्द ने धुँधला दिया जो चित्र बीते वक्त का,
पुत गई दीवार तो वह चित्र कब टँगने दिया।
आँसुओं का कर्ज ही केवल वसीयत में मिला,
किश्त तो भरते रहे पर मूल कब घटने दिया।
घेर 'भारद्वाज' बैठा हर दिशा हर रास्ता,
कोहरे ने सूर्य का रथचक्र कब बढ़ने दिया।
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=चंद्रभानु भारद्वाज
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
कल्पनाओं में सुनहरा रंग कब भरने दिया;
कामनाओं को यहाँ उन्मुक्त कब उड़ने दिया।
चाहते थे ज़िन्दगी तो ज़िन्दगी ही छीन ली,
मौत चाही तो सहज सी मौत कब मरने दिया।
खूबियों के साथ में कुछ खामियाँ भी बाँध दीं,
खामियों को खूबियों से दूर कब करने दिया।
पार कर मझधार कश्ती तो किनारे लग गई,
पर किनारों ने कहीं भी पाँव कब धरने दिया।
गर्द ने धुँधला दिया जो चित्र बीते वक्त का,
पुत गई दीवार तो वह चित्र कब टँगने दिया।
आँसुओं का कर्ज ही केवल वसीयत में मिला,
किश्त तो भरते रहे पर मूल कब घटने दिया।
घेर 'भारद्वाज' बैठा हर दिशा हर रास्ता,
कोहरे ने सूर्य का रथचक्र कब बढ़ने दिया।
</poem>