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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}<poem> '''कमबख्त हिन्दुस्तानी '''
आगे
थोडा थोड़ा और आगे
और, और आगे
उफ़्फ़! और आगे क्यों नहीं
अरे-रे-रे, रुक क्यों गए
ज़मीन पर आंखें गडाए आँखें गड़ाए क्यों खडे खड़े हो
हांहाँ, हांहाँ, कोशिश करो
सिर उठाकर सामने देखो
शाबाश! देखो ही नहीं
कदम क़दम भी आगे बढाओबढ़ाओ
ओह्! सिर दाएंदाएँ-बाएं बाएँ क्यों करने लगे
सामने तो खुला रास्ता है
क्यों खुले रास्ते से डर लगता है
आह! फिर, वैसा ही करने लगे
खडे खड़े ही रहोगे
अरे बैठ भी गये
लेकिन, लेटना मत!
च्च, च्च, च्च, लेट गये
पर, सोना मत
हाय! आंखें आँखें क्यों बंद कर ली
धत्त! खर्राटे भी भरने लगे
काहिल कहीं के!
अजगर ही बने रहोगे
कमबख्त कमबख़्त हिन्दुस्तानी! 
(दिनांक'''रचनाकाल : ०८-०८-२००९)08 अगस्त 2009'''</poem>