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Kavita Kosh से
घिर गया है वैशैली विषैली लताओं से जीवन वृक्ष
बुझते हुए पल भर को सही लड़ी थी लौ भी
मैं नहीं हूँ मैं, तुम भी कहाँ तुम सब मुखौटॆ है
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