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Kavita Kosh से
उसने खुद ही उठा लिया था मुझे
तट पर अकेला पाकर
मैं ढूढ़ ढूँढ़ रहा था शब्द
उसकी गहराई के लिए
बार-बार चट्टानों से टकराकर
उनके पीछे-पीछे
मेरे साथ इस खेल में
बिल्कुल मेरे वहां होने से अनजान
भूखी शार्क के जबड़े में
मैं सम्मोहित -सादेखता रहता जमीन ज़मीन पर
बिछे आसमान को
हवा के झोंकों के साथ
विशाल और असीम
मेरे भीतर होती लहरें
और वह सब कुछ
जो डूब गया इस
जमीन को निगलने
की चाह से भरपूर
हवाओं की बांह बाँह थामे
उछलता आसमान की ओर
ज्वालामुखी का रक्ततप्त