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चौपाल

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आदरणीय अनिल जी, आप मेरे नाराज़ होने और आपके क्षमा माँगने जैसी बात करके मुझे अत्यधिक शर्मिन्दा कर रहे हैं। अगर आप यह वाक्य अपने संदेश से हटा देंगे तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा। कविता कोश में योगदान करते हुए रोज़ाना लगभग सभी लोग कुछ न कुछ गलतियाँ करते हैं -मेरा कार्यों में से एक उन गलतियों को समय रहते सुधार देना है। यदि मैं ऐसी गलतियाँ ना सुधार पाऊँ -तो क्षमा तो मुझे माँगनी चाहिये। आप जैसे सुधिजनों के आशीर्वाद के बल से ही तो कविता कोश जैसे बडे कार्य सफल होते हैं। आप कृपया यह वाक्य हटा दें। आपके आशीर्वाद की आकांक्षा में -सादर -ललित। '''--[[सदस्य:Lalit Kumar|Lalit Kumar]] २२:०३, २३ मई २००७ (UTC)'''
 
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हेमेन्द्र जी एवं ललित जी,
मै मानती हूं जब मैंने पुस्तक नहीं देखी थी मैंने सिर्फ दो शब्द "श्रीगुर को श्रीगुरू"और"जंगम को संगम" किया था लेकिन जब मैंने पुस्तक में देखा तब मैंने दुबारा उसे ठीक किया था २४-५-०७ को।
गीता प्रेस गोरखपुर की ही पुस्तक मेरे पास है और मैं उससे ही देख कर कार्य कर रही हूं अशुद्धियां अनगिनत हैं , कोई भी पंक्तियों के नंबर नहीं प्रयोग किये इससे बहुत कठिनाई हो रही है...जब अशुद्धियां अधिक होती हैं एक बार में ठीक नहीं होती अगर सम्भव तो कोई और भी एक बार देख सकता है वर्ना मैं ही एक बार फिर से देखूंगी।अन्यथा लेने की बात ही नहीं है लेकिन जब भी हम बहुत बड़ा इस तरह का काम देखते हैं तो कुछ कमियां रह जाना स्वाभाविक है ...कोई जानबूझ कर नहीं करता। रह गई अन्य रचनाओं की संपादन की बात तो आप स्वयं बतायें कि कहां गलती हुयी है? मैं सुधारने की कोशिश करूंगी फिर भी आपको लगता है कि मैं सही पाठ को गलत कर रही हूं तो मेरा इस कार्य को छोड़ना ही शायद बेहतर होगा कविता कोश के लिए। मैं किसी की परेशानियां बढ़ाने के लिए कार्य नहीं कर रही । उम्मीद है आप मेरी बात को अन्यथा नहीं लेंगे...मेरा एक सुझाव है कि अगर हम इस तरह की कहीं गलती देखें तो स्वयं भी ठीक कर दें , मैंने पहले भी ललित जी से पूछा था अगर कुछ गलती हो गई तब कैसे ठीक होगा......आप लोग बहुत जानकार हैं ....जल्दी ही ठीक कर सकते हैं......मेरी जानकारी बहुत कम है.......सादर.....
 
डा. रमा द्विवेदी
 
 
 
 
 
 
 
::मैं हेमेन्द्र जी की बात से सहमत हूँ। गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित रामचरितमानस को ही मानक माना जाता है। गीता प्रेस की वैबसाइट (http://www.gitapress.org/Download_Eng_pdf.htm) पर रामचरितमानस पी.डी.एफ़ रूप में बिना मूल्य के उपलब्ध है। आईये हम सभी इसी प्रकाशन को मानक मान कर कोश में संकलित संस्करण को संपादित करें। '''--[[सदस्य:Lalit Kumar|Lalit Kumar]] १८:५७, २४ मई २००७ (UTC)'''
 
हेमेन्द्र जी एवं ललित जी, मै मानती हूं जब मैंने पुस्तक नहीं देखी थी मैंने सिर्फ दो शब्द "श्रीगुर को श्रीगुरू"और"जंगम को संगम" किया था लेकिन जब मैंने पुस्तक में देखा तब मैंने दुबारा उसे ठीक किया था २४-५-०७ को। गीता प्रेस गोरखपुर की ही पुस्तक मेरे पास है और मैं उससे ही देख कर कार्य कर रही हूं अशुद्धियां अनगिनत हैं , कोई भी पंक्तियों के नंबर नहीं प्रयोग किये इससे बहुत कठिनाई हो रही है...जब अशुद्धियां अधिक होती हैं एक बार में ठीक नहीं होती अगर सम्भव तो कोई और भी एक बार देख सकता है वर्ना मैं ही एक बार फिर से देखूंगी। अन्यथा लेने की बात ही नहीं है लेकिन जब भी हम बहुत बड़ा इस तरह का काम देखते हैं तो कुछ कमियां रह जाना स्वाभाविक है ...कोई जानबूझ कर नहीं करता। रह गई अन्य रचनाओं की संपादन की बात तो आप स्वयं बतायें कि कहां गलती हुयी है? मैं सुधारने की कोशिश करूंगी फिर भी आपको लगता है कि मैं सही पाठ को गलत कर रही हूं तो मेरा इस कार्य को छोड़ना ही शायद बेहतर होगा कविता कोश के लिए। मैं किसी की परेशानियां बढ़ाने के लिए कार्य नहीं कर रही । उम्मीद है आप मेरी बात को अन्यथा नहीं लेंगे...मेरा एक सुझाव है कि अगर हम इस तरह की कहीं गलती देखें तो स्वयं भी ठीक कर दें, मैंने पहले भी ललित जी से पूछा था अगर कुछ गलती हो गई तब कैसे ठीक होगा......आप लोग बहुत जानकार हैं....जल्दी ही ठीक कर सकते हैं......मेरी जानकारी बहुत कम है.......सादर..... डा. रमा द्विवेदी
 
::रमा जी, कविता कोश में योगदान देने की इच्छा रखना सबसे महत्वपूर्ण है -और इसके बाद महत्वपूर्ण है वास्तव में योगदान देना। योगदान गलत हुआ या सही -इसका इतना महत्व नहीं हैं। कविता कोश तो सारे विश्व का है और सभी लोगो के सहयोग से बना है। लोग एक दूसरे के द्वारा की गयी गलतियाँ सुधार कर कोश को दिन-प्रतिदिन बेहतर बनाते हैं। यह भी सही है कि हर व्यक्ति की जानकारी अपने अपने क्षेत्र में अपेक्षाकृत अधिक होती है। आपकी कमप्यूटर से संबंधित जानकारी भले ही कम हो -परन्तु आप हिन्दी और साहित्य के विषय में ज्ञान रखती हैं। आपको रामचरितमानस पर काम करना, मेरे विचार में, नहीं छोड़ना चाहिये। हेमेन्द्र जी और मेरा आशय केवल इतना था कि पुस्तक के अनुसार ही कार्य होना चाहिये -ताकि समता बनी रहे। किस पुस्तक को मानक मान कर रामचरितमानस को संपादित किया जाए ऐसा अब तक किसी ने नहीं सोचा था। अब गीता प्रेस की पुस्तक को मानक मान लिया गया है और आप उसी पुस्तक के अनुसार संपादन कर रही हैं तो कोई समस्या ही नहीं। जैसा पुस्तक में लिखा गया है बिल्कुल वैसा ही हम कोश में लिखेंगे। यदि आपसे या किसी भी और व्यक्ति से कोई गलती होती है तो उस बदलाव को उलटा भी जा सकता है। इसलिये आप गीता प्रेस की पुस्तक के अनुसार कार्य जारी रख सकती हैं। ऐसा करते हुए यदि कोई संदेह या प्रश्न सामने आ खडा हो तो चौपाल पर प्रस्तुत कीजिये और आपको समाधान मिल जाएगा। सभी के योगदान की तरह आपका योगदान भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। सादर '''--[[सदस्य:Lalit Kumar|Lalit Kumar]] ०५:१८, २५ मई २००७ (UTC)'''