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{{KKRachna
|रचनाकार=परवीन शाकिर
|संग्रह=खुली आँखों में सपना / परवीन शाकिर
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<poem>
जो धूप में रहा न रवाना सफ़र पे था
उसके लिए अज़ाब कोई और घर पे था

चक्कर लगा रहे थे परिंदे शजर के गिर्द
बच्चे थे आशियानों में तूफ़ान सर पे था

जिस घर के बैठ जाने का दुःख है बहुत हमें
तारीख़ कह रही है कि वो भी खंडहर पे था

हम याद तो न आएँगे लेकिन बिछड़ते वक़्त
तारा सा इक ख़याल तिरी चश्म ए तर पे था

ये क्या किया कि घर की मुहबब्त में पड़ गए
आवारागान ए शब् का तो होना सफ़र पे था
</poem>
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