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<poem>
फैला दिए खुद हाथ तलबगार के आगे
देखा नहीं कुछ हमें खरीदार के आगे

फिर शाम हुई और बढ़ा नाखून ए उम्मीद
फिर सुबह हुई और हम उसी दीवार के आगे

शहजादे मिरी नींद को तू काट रहा है
ठहरा न ये जंगल तिरी तलवार के आगे

क्या जाँ के खसारे की तमन्ना हो कि अब इश्क़
बढ़ता ही नहीं दरहम ओ दीनार के आगे

इनकार की लज्जत में जो सरशार रहे हैं
कब टूट सके हैं रसन ए दार के आगे
</poem>
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