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लेखक: [[भवानीप्रसाद मिश्र]]
[[Category:भवानीप्रसाद मिश्र]]

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कहीं नहीं बचे<br>
हरे वृक्ष<br>
न ठीक सागर बचे हैं<br>
न ठीक नदियाँ<br>
पहाड़ उदास हैं<br>
और झरने लगभग चुप<br>
आँखों में<br>
घिरता है अँधेरा घुप<br>
दिन दहाड़े यों<br>
जैसे बदल गई हो<br>
तलघर में<br>
दुनिया<br>
कहीं नहीं बचे<br>
ठीक हरे वृक्ष<br>
कहीं नहीं बचा<br>
ठीक चमकता सूरज<br>
चाँदनी उछालता<br>
चाँद<br>
स्निग्धता बखेरते<br>
तारे<br>
काहे के सहारे खड़े<br>
कभी की<br>
उत्साहवन्त सदियाँ<br>
इसीलिए चली<br>
जा रही हैं वे<br>
सिर झुकाये<br>
हरेपन से हीन<br>
सूखेपन की ओर<br>
पंछियों के<br>
आसमान में<br>
चक्कर काटते दल<br>
नजर नहीं आते<br>
क्योंकि<br>
बनाते थे<br>
वे जिन पर घोंसले<br>
वे वृक्ष<br>
कट चुके हैं<br>
क्या जाने<br>
अधूरे और बंजर हम<br>
अब और<br>
किस बात के लिए रुके हैं<br>
ऊबते क्यों नहीं हैं<br>
इस तरंगहीनता<br>
और सूखेपन से<br>
उठते क्यों नहीं हैं यों<br>
कि भर दें फिर से<br>
धरती को<br>
ठीक निर्झरों<br>
नदियों पहाड़ों<br>
वन से !<br><br>
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