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{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=विष्णु नागर
|संग्रह=घर से बाहर घर / विष्णु नागर
}}
<poem>
अब के राजा किले नहीं बनाते
मुकुट नहीं पहनते
मूछें नहीं रखते
अब के राजाओं को मालूम है कि
ऐसे राजाओं को आजकल जोकर समझा जाता है
और कोई भी रूपल्ली उनके सामने फेंक रवाना हो जाता है
अब के राजा, प्रजा को कहते हैं जनता
चुनाव में गांव-गांव की धूल फांकते हैं
झुकते हैं, पैर पकड़ते हैं, अपनी गलती मंजूर करते हैं
अपनी आलोचना सुन मुस्कुराते हैं
अबके राजा इतने होशियार हैं
कि प्रजा कई बार अपने को राजा समझकर उनके सामने
अकड़ने लगती है
विरोध प्रकट करने लगती है
पत्थर फेंकने लगती है, मुर्दाबाद करने लगती है तो भी वे धीरज रखते हैं
होता वही है जो हमेशा होता आया है
गोली चलती है, लोग मारे जाते हैं
ढेर के ढेर पुराने राजा
महलों में छोड़कर
अपने मुकुट
कटवाकर मूंछें प्रजातंत्र के मैदान में बांहें चढ़ाए आ चुके हैं.
{{KKRachna
|रचनाकार=विष्णु नागर
|संग्रह=घर से बाहर घर / विष्णु नागर
}}
<poem>
अब के राजा किले नहीं बनाते
मुकुट नहीं पहनते
मूछें नहीं रखते
अब के राजाओं को मालूम है कि
ऐसे राजाओं को आजकल जोकर समझा जाता है
और कोई भी रूपल्ली उनके सामने फेंक रवाना हो जाता है
अब के राजा, प्रजा को कहते हैं जनता
चुनाव में गांव-गांव की धूल फांकते हैं
झुकते हैं, पैर पकड़ते हैं, अपनी गलती मंजूर करते हैं
अपनी आलोचना सुन मुस्कुराते हैं
अबके राजा इतने होशियार हैं
कि प्रजा कई बार अपने को राजा समझकर उनके सामने
अकड़ने लगती है
विरोध प्रकट करने लगती है
पत्थर फेंकने लगती है, मुर्दाबाद करने लगती है तो भी वे धीरज रखते हैं
होता वही है जो हमेशा होता आया है
गोली चलती है, लोग मारे जाते हैं
ढेर के ढेर पुराने राजा
महलों में छोड़कर
अपने मुकुट
कटवाकर मूंछें प्रजातंत्र के मैदान में बांहें चढ़ाए आ चुके हैं.