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<poem>
दस्तरस से अपनी बाहर हो गए
जब से हम उनको मयस्सर हो गए

हम जो कहलाये तुलुअ ए माहताब
डूबते सूरज का मंज़र हो गए

शहर ए खूबाँ का यही दस्तूर है
मुड़ के देखा और पत्थर हो गए

बेवतन कहलाये अपने देस में
अपने घर में रह के बेघर हो गए

तेरी खुदगर्ज़ी से खुद को सोचकर
आज हम तेरे बराबर हो गए
</poem>
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