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{{KKRachna
|रचनाकार=परवीन शाकिर
|संग्रह=सदबर्ग / परवीन शाकिर
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<poem>
उसी तरह से हर इक ज़ख़्म खुशनुमा देखे
वो आये तो मुझे अब भी हरा-भरा देखे
गुज़र गये गए हैं बहुत दिन रिफ़ाक़ते-शब <ref>रातों से दोस्ती</ref> मेंइक उम्र हो गयी गई चेहरा वो चांदचाँद-सा देखे
मेरे सुकूत <ref>चुप्पी</ref> से जिसको गिले रहे क्या-क्या
बिछड़ते वक़्त उन आंखों का बोलना देखे
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे
बस एक रेत का ज़र्रा बचा था आंखों आँखों में
अभी तलक जो मुसाफ़िर का रास्ता देखे
उसी से पूछे कोई दश्त <ref>जंगल</ref> की रफ़ाकत <ref>दोस्ती</ref> जोजब आंख आँख खोले पहाड़ों का सिलसिला देखे
तुझे अज़ीज़ <ref>प्रिय</ref> था और मैंने उसको जीत लिया
मेरी तरफ़ भी तो इक पल ख़ुदा देखे
रिफ़ाकते-शब=रातों से दोस्ती; सुकूत=चुप्पी; दश्त=जंगल; रफ़ाकत=दोस्ती; अज़ीज़=प्रिय{{KKMeaning}}
</poem>
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