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हम सभी / विजय वाते

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<poem>
महफ़िलों के तलबगार हैं हम सभी
नींद से अपनी बेज़ार हैं हम सभी

सिर्फ बबलू हसे ये ही काफी नहीं
मान के आँचल के हकदार हैं हम सभी

कोरे वादों से हमें न भारमाईए
इन अदाओं से लाचार हैं हम सभी

वैजों - पंडितों कुछ रहम तो करो
एक अरसे से बीमार हैं हम सभी

अपनी बातों का अंदाज़ ऐसा लगे
जैसे ईसा के अवतार हैं हम सभी

इस बगावत के झंझट में पड़ते नहीं
पालतू हैं वफादार हैं हम सभी

शुक्रिया अलविदा खैरमकदम दुआ
लफ़्ज़ों में ही गिरफ्तार हैं हम सभी
</poem>