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वृत्त / मदन कश्यप

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<poem>
अब ठीक-ठीक याद नहीं पहली बार
इसे किसी बच्‍चे की कॉपी या
स्‍कूल के ब्‍लैक बोर्ड पर देखा था
या सीधे रेखागणित की किताब में
लेकिन हजारों बार देखने के बाद भी
मुझे शून्‍य का यह बड़ा रूप जितना
आकर्षक लगता है उतना ही डरावना
जैसे यह कोई महाशून्‍य हो

महज एक रेखा से बना यह वृत्‍त अद्भुत है
इसकी परिधि को तीन कोणों से खींचो

तो यह त्रि‍भुज बन जाएगा और चार
कोणों से चतुर्भुज. इस तरह वह
अपनी गोलाई में अनंत कोणों और
अनंत रूपों की संभावनाओं को छिपाए
हुए किसी कोने में कुटिलता से
मुस्‍कुराता रहता है

इसका क्षेत्रफल और परिधि ज्ञात करने
के लिए मास्‍टरजी ने थमाई थी
एक कुंजी-पाई यानी बाईस बटा सात
एक ऐसा भिन्‍न जो कभी हल नहीं होता
और मेरे यह पूछने पर कि बाईस बटा सात
ही क्‍यों-लगाई थी छड़ी

भारतीय शिक्षा पद्धति के उपहार के बतौर
अब भी मेरी हथेली के अंतस्‍तल में
बचा है उसका निशान
(यह तो मैं बहुत बाद में जान पाया कि
एशिया में बच्‍चे सवाल नहीं पूछा करते
केवल विश्‍वास किया करते हैं)


वृत्‍त को मालूम है कभी नहीं निकलेगा
बाईस बटा सात का हल
अपनी धूर्त्‍तता पर उसे इतना नाज है
कि इसी के बूते वह लगभग निश्चिंत है


यह जानता है कि उसके भीतर
किसी जगह से किसी भी दिशा में
शुरू करें यात्रा और कितनी भी चलें
आप कहीं नहीं पहुंचेंगे!
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