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{{KKRachna
|रचनाकार = मदन कश्यप
|संग्रह = नीम रोशनी में / मदन कश्यप
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
वह कुआं कोसों दूर लग रहा था
जब मेरा घर जल रहा था
जिस बाल्टी के पानी से
भींग जाता था मैं पोर-पोर
उसमें सिर्फ चुल्लू भर पानी आ पा रहा था
जब मेरा घर जल रहा था
जितने लोग भोज के दिन अंट नहीं पा रहे थे
मेरे आंगन में
उतने लोग काफी कम लग रहे थे
बहुत कुछ किया
पानी पटाया
धूल झोंकी
बांस-बल्लों से ठाटों को अलगाया
बहुत कुछ किया
फिर भी यह इतना कम था
कि जैसे कुछ भी नहीं किया!
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|रचनाकार = मदन कश्यप
|संग्रह = नीम रोशनी में / मदन कश्यप
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<poem>
वह कुआं कोसों दूर लग रहा था
जब मेरा घर जल रहा था
जिस बाल्टी के पानी से
भींग जाता था मैं पोर-पोर
उसमें सिर्फ चुल्लू भर पानी आ पा रहा था
जब मेरा घर जल रहा था
जितने लोग भोज के दिन अंट नहीं पा रहे थे
मेरे आंगन में
उतने लोग काफी कम लग रहे थे
बहुत कुछ किया
पानी पटाया
धूल झोंकी
बांस-बल्लों से ठाटों को अलगाया
बहुत कुछ किया
फिर भी यह इतना कम था
कि जैसे कुछ भी नहीं किया!