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भेड़िया / मदन कश्यप

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<poem>

कभी-कभी मेरे बेटे के कोमल चेहरे की ओर
बढ़ता हुआ-सा दीखता है उसका पंजा
एक छोटा-सा एकांत तलाशता हूं पत्‍नी के लिए
कि लगता है पर्दे के पीछे वह है
दूर तक निहारता हूं बेटियों का स्‍कूल जाना
लगता है वह पीछे-पीछे जा रहा है

दफ्तर से लौटने पर
पानी मांगने से पहले पूछता हूं
सबकुछ ठीक तो है
कहीं दिखा तो नहीं वह
जिसकी गुर्राहटें लगातार बजती रहती हैं मेरे कानों में

वह दिखे तो
बंद की जा सकती है खिड़की
दरवाजे पर बढ़ाई जा सकती है चौकसी
कम किया जा सकता है अंधेरे में आना-जाना
फिर भी न माने तो
मरोड़े जा सकते हैं उसके पंजे
मगर कहीं भी होता नहीं दिखता वह
बस उसके होने का एहसास डराता है मुझे

मेरे सपने में आते हैं सर्वेश्‍वर
कहते हैंः भेडिया है
तुम मशाल जलाओ!
मेरे सपने आते हैं भुवनेश्‍वर
कहते हैः भेडिया है
तुम गोली चलाओ!

सपनों में भी बेचैन हो जाता हूं मैं
मशाल भी जलाऊंगा
और गोली भी चलाऊंगा
पर कहीं दिखे तो भेडिया!
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