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जिराफ / रमेश कौशिक

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<poem>'''जिराफ'''<br /><br />उँट हमारा मामा लगता<br />घोड़ा अपना भाई है<br />चरते-चरते बात पते की मम्मी ने बतलाई है।<br /><br />खाल हमारी ऐसी जैसे ओढा हुआ लिहाफ है<br />अपना नाम जिराफ है।<br /><br />इतनी बड़ी कुलाँचे अपनी<br />हिरन देखकर शरमाता<br />पेड़ों का मस्तक जब देखो<br />हमें देख कर झुक जाता।<br /><br />चाहे कोई दुश्मन समझे<br />अपना मन तो साफ है<br />अपना नाम जिराफ है।<br /><br />हिंसा में विश्वास नहीं है<br />शाकाहारी कहलाते<br />बल-प्रयोग तब ही करते <br />जब संकट में घिर जाते।<br /><br />जब तक कोई नहीं छेड़ता<br />तब तक सब कुछ माफ है<br />अपना नाम जिराफ है।</poem>
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