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''' दुआरे रामदुलारी''' सत्ताईस सालों से गोबर-गोइंठा पाथतीचौका-बेलन सम्हालती रामदुलारी राजी-खुशी निखार रही हैअपने रामपियारे की गृहस्थी और खुशफ़हमी पाल रही हैखेत-खलिहानों में गुल्ली-डंडा खेलते अपने वानर-सरीखे बच्चों की किस्मत संवारने की, उन्हें बाबूसाहेबों के बच्चों जैसाहोनहार-वीरवान बनाने की  सत्ताईस सालों पहलेजब सजी-संवरी रामदुलारी सपनों की गठरी लिए अपने पीहर आई थी और आन्खों में लबालब शर्म और होठो पर छलकती मुस्कान की गगरी लाई थी,उसने अपनी किलकारी-फिसकारी सब घर की खुशी की वेदी पर चढा दिए,उसके हाथों में गज़ब के कौशल थे यों तो वह अंगूठा-छाप थी लेकिन, उसके बनाए बाटी-चोखे भाजी, भात और भुर्तेपूरे गांव में लोकप्रिय थे,सनई की सुतली और बांस की फत्तियों से बने पंखों, दोनों, चिक, चटाइयों और गुलदस्तों की नुमाइश सासू मां टोले-भर लगा आती थी,फटी-पुरानी धोतियों से बनीउसकी चमचमाती कथरी और ओढनी जो बाहर पडी खटिया पर टंगी रहती थी अकसर पडोसियों को चोर-उचक्का तक बना देती थी