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कानपूर–1 / वीरेन डंगवाल

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<poem>

प्रेम तुझे छोड़ेगा नहीं !
वह तुझे खुश और तबाह करेगा.


सातवीं मंजिल की बालकनी से देखता हूं

नीचे आम के धूल सने पोढ़े पेड़ पर
उतरा है गमकता हुआ वसन्‍त किंचित शर्माता.

बड़े-बड़े बैंजली-

पीले-लाल-सफेद डहेलिया
फूलने लगे हैं छोटे-छोटे गमलों में भी.

निर्जन दसवीं मंजिल की मुंडेर पर
मधुमक्खियों ने चालू कर दिया है
अपना देसी कारखाना.

सुबह होते ही उनके झुण्‍ड लग जाते हैं काम पर
कोमल धूप और हवा में अपना वह
समवेत मद्धिम संगीत बिखेरते
जिसे सुनने के लिए तेज कान ही नहीं
वसन्‍त से भरा प्रतीक्षारत हृदय भी चाहिए
आंसुओं से डब-डब हैं मेरी चश्‍मा मढ़ी आंखें

इस उम्र और इस सदी में.
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