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Kavita Kosh से
रोयेगी मानवता
हँसगे गिद्ध।
कुछ कम हो
शायद ये कुहासा
यही प्रत्याशा।
चींटी बने हो
रौंदे तो जाआगे ही
रोना धोना क्यों?
सूर्य के पाँव
चूमकर सो गए
गाँव के गाँव।
यूँ ही न बहो
पर्वत–सा ठहरो
मन की कहो।
पतंग उड़ी
डोर कटी‚ बिछुड़ी
फिर न मिली।
धूप के पाँव
झेलेगा कब तक
तम के दंश।
क्यों तू उदास
दूब अभी है ज़िन्दा
पिक कूकेगा ।
शहरी चक्की
फुदकती गौरैया
शुभ नहीं ये।
लोक रोपता
महाकाव्य की पौध
लुनता कवि।
बादल रोया
धरती भी उमगी
फसल उगी।
स्वागत हुआ
दूब–धान आया
लोक जीवन।
मरने न दो
परम्पराओं को कभी
बचोगे तभी।
बिना धुरी के
घूम रही है चक्की
पिसेंगे सब।
मिलने भी दो
सोख हवा से नमीं
वृद्ध पहाड़।
छीन लेता है
धनी मेघों से जल
दानी पहाड़।
अनाम गन्ध
ढहा देगा फिर भी
तम का दुर्ग।
मुढ़ैठा बाँधे
बैठता आसन पे
ऋषि सूरज।
निगल गई
लाता है ढो ढोकर
हवा का घोड़ा।
हाइकु हंस
हौले से हवा हुआ
काँपा शैवाल।
ओस की बूँद
कैक्टस पर बैठी
शूली पे सन्त ।
रात सिसकी