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Kavita Kosh से
पर्वत–सा ठहरो
मन की कहो।
सदियों का सृजन
क्रोधित धरा।
अकड़ा खड़ा चना
माटी का बेटा।
उतरती छज्जे से
आँगन बीच !
बैठता आसन पे
ऋषि सूरज।
लाता है ढो ढोकर
हवा का घोड़ा।
ओस की बूँद
कैक्टस पर बैठी
शूली पे सन्त !
अनाम गन्ध
बिखेर रही हवा
धान के खेत।
हौले से हवा हुआ
काँपा शैवाल।
दूब अभी है ज़िन्दा
पिक कूकेगा ।
लोकगीत पीसना
अबाध गति।
फुदकती गौरैया
शुभ नहीं ये।
महाकाव्य की पौध
लुनता कवि।
धरती भी उमगी
फसल उगी।
राम और ईसा को
भिन्न हैं कहाँ !
सोख हवा से नमीं
वृद्ध पहाड़।