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Kavita Kosh से
कुछ वर्तनी व फ़ॉरमेट सुधार
बंद मुँह भी
कैसे मुस्कुरा लेते हैं इतना,
आँचलों में सिमटे
नंगई सँवारते हैं।
टूटे पुलों के छोरों पर
तूफान पार करने की
उम्मीद लगाई औरतों औरतो !
जमीन धसक रही है
पहाड़ दरक गए हैं
बह गई हैं - चौकियाँ
शाखें लगातार काँपती गिर रही हैं
जंगल
पानी लगातार तुम्हारे डूबने की
साजिशों में लगा है,
अंधेरे ने छीन ली है भले
पर मेरे पास
अभी भी बचा है
एक दर्पण
चमकीला।