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|रचनाकार=वीरेन डंगवाल
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<poem>

गाड़ी खड़ी थी
चल रहा था प्‍लेटफार्म
गनगनाता बसन्‍त कहीं पास ही में था शायद
उसकी दुहाई देती एक श्‍यामला हरी धोती में
कटि से झूम कर टिकाए बिक्री से बच रहे संतरों का टोकरा
पैसे गिनती सखियों से उल्‍लसित बतकही भी करती
वह शकुंतला
चलती चली जाती थी खड़े-खड़े
चलते हुए प्‍लेटफारम पर
ताकती पल भर
खिड़की पर बैठे मुझको
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