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एक शाम/ रेणु हुसैन

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<poem>
जब पहाड़ों पे हल्की—हल्की
बरफ़ गिर रही थी
और बरफ़ की चादर पे धीरे—धीरे
उतर रहे थे हवा के साए
दरख़्तों से छाया विदा ले रही थी
झरने की आवाज़ किसी को पास बुलाती
एक हसीन-सी खामोशी में ड़ूब रही थी

ऐसे में तब थाम लिया मुझे अचानक
दो नरम मुलायम हाथों ने
सिमट गई तब सारी वादी
और ठंड उसकी जलने लगी।

तब मुझको मालूम हुई
एक नए अह्सास की गरमी
बोझिल आंखों पर छाने लगी नींद
नज़र मेरी चली गई तब एक सितारे पर
जो स्याह आसमान में टिमटिमाने लगा था
तभी दुआ में उठे अचानक मेरे दोनों हाथ

एक बेमिसाल शाम थी वो
अचानक हुई दाख़िल मेरी ज़िन्दगी में
एक नई दुल्हन की तरह
उसी शाम को मैंने पाया तुम्हें
उसी शाम मुझको तुम मिल गए।

<poem>
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