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युद्ध / रेणु हुसैन

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<poem>
मुस्कुराओ मत, हंसी कैद रखो
कदम रक्खो धीमा, आहटें रोक दो
उतार दो पायल
चूड़ियों की ख़नक थाम लो
शायद तुमको पता नहीं है
कि अभी भेड़िये निकले हैं
तुम्हें तलाश करते

इन नूरानी आंखों में मत खो जाना
इनके भीतर भरी हुई है अथाह क्रूरता
अपनापे से भरी सांस के ज़हर को सूंघो
रिश्तों के दरवाज़े से जो चले आ रहे
उन चेहरों के पीछे आती स्याही देखो
शायद तुमको पता नहीं है
कि ऐलाने-जंग हो चुका

ये जंग आज की बात नहीं है
सदियों से चलती आई है
प्यार, मुहब्बत, ईमां, इन्सां
ये सब इसके दुश्मन हैं
और इस जंग में
कोई कुछ भी हो सकता है ।

<poem>
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