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विदाई / रेणु हुसैन

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<poem>
पालकी अब तैयार खड़ी
काहे बहे अंसुअन की लड़ी

सूरज कैसा चमक उठा है
मस्त हवाएं बह निकलीं
सांझ ढली फिर बादल छाए
निसा की बेला और बढी
काहे बहे अंसुअन की लड़ी

घूंघट में चुप-चुप आंखें
आंखों में चुप-चुप सपने
भारी होता मन पल-पल
अब आहें बेकार सभी
बीती निसा और प्रात भई
काहे बहे अंसुअन की लड़ी

कैसे मंजर सामने आए
जो थे, अपने हुए पराए
जननि नेह से नाता टूटा
भइया का घर भी छूटा
प्रीतम तुमसे डोर बंधी
काहे बहे अंसुअन की लड़ी
<poem>
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