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|रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव
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'''निराकार सत्य'''

झांक रहा हूं
स्मृत्यायन से
एक सुनहले गांव की संध्या--
मदमाती और इठलाती
और नहलाती
शुभ्र तृष्णा जल से
स्याह हुए मन को
जो सुप्त हुआ है
हताशा में
जिसका अंतहीन व्योम
सिकुड़ गया है
बिंदु-सरिस बुलबुले में
फूट कर बनने के लिए
एक निराकार सत्य.