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रजनी / विजय कुमार पंत

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काले केशो सा तम विभोर
तुम छुपा ह्रदय में नयी भोर
चंदा, संध्या, साजन , सजनी
तुझमें विश्राम करे रजनी……..

नित सुबह स्पन्दन मुखर मुखर
किरने लाती प्रकाश भर भर
तेरा तम ही तो जीवन है
उनका जो जीते हो जलकर
आभास नए सुख का देती
अंतर में जैसे पीर घनी…..
तुझमें विश्राम करें रजनी..

तेरा चिर परिचित कृष्ण वर्ण
जिसमें कुछ और नहीं रचता
तुझमें मिटने का साहस है
तुझको कुछ और नहीं जंचता
तेरे तम से खुद को धोकर
तुझसे सजकर सूरज उगता
दिन जीवन देकर अमर किया
और खुद अंधियारी रात बनी
तेरा विश्राम कहाँ रजनी.....

तू प्रेरक, पावक, सौम्य, शांत
फिर भी सदियाँ क्यूँ खड़ी भ्रांत??
जग तुझमें पता चिर विराम
हारे, जीते, सब विकल, क्लांत
ये समय समर्पण मौन मौन
निस्वार्थ भावः से पूर्ण धनी
तुझमें विश्राम करे रजनी.....
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