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{{KKRachna
|रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव
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''' कविता! तुम आवारा हो गई हो '''

नंगी-अधनंगी
चिथड़ी-उटंगी
धोती लपेटे,
रूखे बाल
रस्सियों सी उमेठे,
गन्हाते गोबर-सी
पसीनियाए काजल-सी
मेल उबेटे,
आँखों और कानों में
कीचड़-खूंट समेटे,
कोल-भीलों संग
भंगी-कबीलों संग
वाहियात बन गयी हो

नाबदानों में डोलती हो
झुग्गियों में लिसढ़ती हो
चमरौटियों में भी
मटक-मटक चलती हो,
बिहारी मजूरों की
खैनी मसलती हो,
देर-सबेर
अंधेर-उजेर
मेहतर के हाथों
साग-भात निगलती हो

कहां गए--वो तेरे
नखरे और नख-शिख
भाल-गाल, उर, कटि
पूरी की पूरी कबाड़ बन गई हो

कविता! तुम आवारा हो गई हो
राजमहलों से ठिठककर
रनिवासों से भटककर
राजकुंवरों से चिटककर
तुम बंजारन बन गई हो.