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तब और अब / सांवर दइया

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नया पृष्ठ: <poem>तब मस्तमौला मन की मिल्कियात थे ढाई आख्र जिनकी खनक सुन खिंचे आत…
<poem>तब
मस्तमौला मन की मिल्कियात थे
ढाई आख्र
जिनकी खनक सुन
खिंचे आते लोग
जैसे पूनम को आता सागर में ज्वार
मुट्ठियों में होते मोती
तह तक आते खंगाल !

अब
बुद्धि के तरकश में तर्क के तीर लिए
योद्धा बने खडे
भेद रहे हैं दूसरों की दीवारें
ढहाकर उनके दुर्ग जहां-तहां
बना रहे अपने मठ यहां-वहां
फिर भी हैं कंगाल !
</poem>
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