भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
<poem>किस डर से उठती नहीं आंखें हिलते नहीं होंठ धूजते हैं हाथ-पैर पहाड़ हो जाते हैं कंकड़ समंदर चुल्लू आसमान गिर पड़ता है धरती पर बिना किसी आहट के और धरती हो जाती है स्वर्गीय किस डर से टूट रहे हैं दर्पण बिखर रहे हैं बिम्ब सड़ रहे हैं प्रतीक कुंदा रही है कलम षब्द शब्द मांग रहे हैं भीख किताबें हो रही हैं अंधी सर्जक खड़ा है कटोरा लिए दूकानों पर और सब चुप!!! किस डर से.........
</poem>