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|रचनाकार=गोबिन्द प्रसाद
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<poem>

रंगों का एक ताल
है जिसमें
गहरे भीतर तक
उठाकर भाल; मुझे जाना है
दरअस्ल रंग तो बाना है
जिसके सहारे मुझे नाचते हुए
तुम तक पहुँचना है
पहुँचना है कुछ उसी तरह
जैसे पत्थर की रगों में
धड़कता है दरिया
जैसे चट्टानों के सीने में
धधकता है लावा
पहुँचना है कुछ उसी तरह
जैसे मज़दूर के माथे पर
फूटता है पसीना
पहुँचना है कुछ उसी तरह
जैसे कुदाल की नोंक पर
चमकता है नगीना
पहुँचना है कुछ उसी तरह
जैसे हथेलियों के बीच
छलछलाता है झरना
<poem>
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