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नाम / मनोज श्रीवास्तव

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''' नाम '''

बेतकल्लुफ ढोने की आदत से
बाज नहीं आ रहा हूं मैं
उमर के लिसढते पहिए पर
दुर्वह्य समय खींच रहा हूं,
मांस-मज्जा के इस मकान पर
इस धूसर नाम का झंडा
कब से फहरा रहा हूं मैं?

मैं वह धुंधलाती रेखा हूं
जिस पर शब्द टाँके जाते हैं,
शब्द जो विशाल से विशालतम
विशालतम से अपरिमेय
अर्थ और भाव पहन लेते हैं,
पर, शब्द की इस गतिमयता में
मेरी रेखा अधिक और अधिक
धुंधलाती जाती है,
शब्दों के चकाचौंध में
अहमियत खोती जाती है

इतिहास के पसरते घर में
अदना से अदना नाम भी
महारूफ नहीं है
अपनी अस्मत से,
क्या मैं बन सकूंगा
इस घर का सदस्य,
उन बडे-बडे नामों के आगे-पीछे
ऊपर-नीचे टांगों के बीच
गर्दन या हाथों की आड में,
उकड़ू खडा हो सकूंगा
या, बन सकूंगा
उनकी परछाई का
एक अविलगेय हिस्सा

ख्याति के भूगोल में
द्वीप-महाद्वीप
सागर-महासागर सरीखे नाम
अक्षांश-देशान्तरों को
घेरे हुए जम चुके हैं
इस तरह कि
कब्र की जगह के लिए भी
तरसूंगा मैं,
अपने नाम का मुर्दा लिए
भटकूंगा मैं.