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मेरा सूरज / विजय कुमार पंत

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अक्सर उगती है
सुबह मेरी
नन्ही जल की बूंदें होकर
तेरी जुल्फों के बादल से
अक्सर उगता सूरज मेरा
कुछ दौड़ते तेरे कदमो से
और नीचे गिरते आंचल से
अक्सर मेरा दिन जाता है
उन राहों को तकते तकते
जिस पर पड़ते है कदम तेरे
कुछ धीमे से थकते थकते
हर शाम तेरी वो एक नज़र
कुछ राग सुना जाती मुझको
जलकर जीता हर रात सदा
एक दीप बना जाती मुझको
वो मीठा दिन लेकर अक्सर
मैं सोने जब भी जाता हूँ
पलकों में बंद किये तुझको
बस मन ही मन मुस्काता हूँ
फिर आकर अक्सर तुम मुझको
यूँ बांहों मैं भर लेती हो
मेरे माथे पर दे चुम्बन
अधरों को अनल कर देती हो
जब स्पर्श मुझे बन के तरंग
स्पंदन के साथ सुलाता है
दिल से मेरे ये लहू निकल
कर तेरे दिल में जाता है
मैं सागर ,संगम सब होकर
जड़ चेतन , जंगम सब होकर
तेरे आंचल के तारों में
अपनी बेसुध गरिमा खोकर
तेरी पलकों में सोता हूँ
सपनो में ही खुश होता हूँ
कि..
तुम भी दुनिया से दूर कहीं
पलकों को अपनी बंद किये
यूँही करवट लेते लेते
सांसों को अपनी मंद किये
करती होगी तुम याद मुझे
मैं बिन बोले कुछ कहता हूँ
नैनो में कितनी प्यास लिए
मैं अक्सर तकता रहता हूँ
जब सपना सच हो जायेगा
या तुम्हें समझ आ जायेगा
उस दिन सुबह ऐसी होगी
सूरज ही मुझे जगायेगा....
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