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''' चाहता हूँ पागल भीड़ ''' मुझे अथाह विषाद हैभीड़ के जनानेपन पर,वह बालकनियों परबैठी देख रही है रेंगते-फुफकारते जुलूसों को मुझे दु:ख है कि चारादीवारियों के अन्धखोह में घुटती-घुलती भीड़ की गुमासुमाहटक़त्ल कर देगी हर अच्छे पल को मैं उससे करता हूँ आह्वान--जागो, उठोबेतहाशा भागो! उन कब्रिस्तानी राजमार्गों पर,जा धमाकोखूंखार आरामगाहों में जहां मौज-मस्ती के नाम पर हो रहा है--यातनाओं का साधारणीकरण,अपाहिज औरतें, दुधमुंही बच्चियां यंत्रवत गुजर रही हैं बलात्कार-चक्र से,शिशु चलाकर घुटनों से ढो रहे हैं ईंट, गारे, सरिएऔर तरस रहे हैं उन छायादार छतों के लिए जिन्हें उन्होंनेटांग दिया है हवा में बड़ी मज़बूती से मैं दीवारों के पीछे चौंधियाते बुद्धू बक्से परटंकी-टिकीपथराई आँखें भीड़ कीगुहार रहा हूं,वह आँखों की मशाल सुलगाकरछाप ले भरभराकर ऐय्याश राजमार्गों को,उमड़ पड़े समवेतहरामखोर प्रासादों की ओर और आदमखोरों को मसल देसरेआम क़दमों तले जबकि सारा राष्ट्र तब्दील हो चुका हैएक लम्पट लाक्षागृह में और तुम हर पल इस राजपोषित यातनाघर में घड़ियाली जबड़ों के बीच पलीद होते जा रहे हो,तुम अहसास करोऔर सिर्फ एहसास करो-- घड़ियाली दांतों की चुभनऔर चुभन का विघातक दर्दजो उधेड़ेगातुम्हारे चेतना-पर्त,तब, तुम पागल दौड़ पड़ोगे गुत्थमगुत्थ उन दुर्दांत दांतों को जड़ से उखाड़ फेंकने मैं भैरवी तान में करता हूँ तुम्हारा पुरजोर आह्वान--कि एक रणनीति से रचो एक भीड़बेशक, ऊब से बौराई-बौखलाई भीड़,घर-घर से कण-कण जमा हो एकजुट बनो, सख्त आग्नेय चट्टान बनोअमोघ वज्रास्त्र बनोऔर बरप पड़ोतदित कहर बनश्वेत दैत्यों के ऐशागाहों पर खौफनाक राजदंशों से भीड़ का पागल होनायानी षड्यंत्रगत नृशंसताओं सेआज़ाद होना है,ऐतिहासिक दासत्त्व का छू-मंतर होना है हां, मैं चाहता हूँ एक ईमानदार भीड़,एक न्यायप्रिय भीड़,एक विवेकशील भीड़,क्योंकि ऐसे में पागल-सी लगती भीड़ मेंपागलपन नहीं होता,उसके कण-कण में एक गंतव्य छिपा होता होता है,दमित आशाओं कामुखर होना बड़ा होता है हां, नहीं रहा कोई जनप्रिय तंत्र यहां,नारे लगाकरइश्तेहार-पर्चे बांटकर गांधी-अम्बेडकर की दोहाई देकर मंचित किया जाता रहा है एक लोकतांत्रिक स्वांग जिसे भीड़तंत्र कर दे अभी ख़त्मऔर प्रयाण करे वहांराष्ट्रभक्ति के मुहावरेदार जुमलेसुना-सुना जहांचिपके हुए हैं 'वैम्पायर' जोंककामधेनु-सरीखे आयोगों-समितियों से,बना लिया हैअपना मुस्तकिल नीड़फाइलों के भीतरदिग्गज परियोजनाओं में आधी सदी सेसनकी कुम्हारों के हाथों दमन-चाक पर विवश नाचती,खुद के हिज्जे-हिज्जे सम्हालती,आखिर, भीड़ अपने मोहबंधन तोड़ेगी कब,विवेक का पिटारा खोलेगी कब? आधी सदी से वर्णमाला विफल रही हैआज़ादी के मायने समझाने में,बेशक! तुम फेंक दो स्लेट, पेन्सिल, किताब-कापियां,नव-दासत्त्व की पीड़ा ही काफी हैतुम्हें पोथियों का सार बताने को.