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<poem>क्यों सजाए हो
सिंधुघाटी के उस एक मात्र कंकाल कोआलिंगनबद्ध जोडे़ जोड़े के कंकाल कोकंटीले तरों तार्पं के बीच !आओ, खीच दोप्रत्येक शहर के चारों ओरकंटीले तारलम्बीऊंची दीवारेंक्यों कि, तुम्हे मिलेगा यहांअंदर से सांकल चढ़ेप्रत्येक बन्द कमरे मेंभूख कीबेहोशी की मौत मराआलिंगनबद्धहर एक नर-मादा का जोड़ा।तुम उधर कतई नहीं देखोगेमुझे पता है ;तुम्हें वर्तमान को भूलभूत को ढ़ोनेभविष्य को रोने कीआदत पड़ गई हैतभी तो तुम्हें आज विश्‍व मानचित्र पररोटी मांगते हाथ, कहां दिखते है ?कहां दिखती हैहिरोसिमानागासाकीभौपाल गैस त्रासदी ? तुम्हें चिंता हैस्टारवाररोबोट युग की।और चिंता है।सिंधु घाटी के अवशेषों कीसमुद्र में डूबी द्धारकाराम की अयोध्यारावण के सोने की लंका की। तुम्हें कहां चिंता हैसमय से कटतेइन चाम चढ़ेजिन्दा नर कंकालों की ?तुम तो बस, लीन होअपने वर्तमान कीमुर्दा लाश को सजाने में। संस्कृति का खूनतुम्हारे मुंह लग वुका हैचटखारे ले-ले कर हाड तक चटकर सकते हो।लेकिन नहीं, हाड नहीं !नर कंकाल तोविदेशी मुद्रा जुटाने कासाधन है तुम्हारा;हाड भला क्यों चट करोगे ? तुम स्वार्थ पूर्ति के लिएठोर तलाशते होव्यक्तिगत लाभार्थसूंघते-चाटते होवरना उस परएक टांग उठा मूत करने मेंकहां चूकते हो ?</poem>
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