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पिछले कुछ दिनों से
मैं सुन रहा हूँ ,
तुम्हें,
तुम्हारे बारे में .
और अब
सच है के
तुम्हें सोचता भी हूँ .
खिंच गयी हो तुम
मन में
एक लकीर सी
कच्चे कोलतार की सड़क पे
पड़े पहिये के निशाँ जैसी
हाँ मुझे स्वीकार है
मैं प्रेम में हूँ
मुझे ये भी स्वीकार है
के तुम्हें पाने और ना पाने के बीच
बहुत सी दूरियां हैं
मसलन ,
तुम्हें जानता भी नहीं
तुमसे मिला भी नहीं
देखा भी कहाँ है तुमको
उस एक धुंधली सी तस्वीर के अलावा
और कितना दूर हूँ तुमसे
तकरीबन डेढ़ हज़ार किलोमीटर्स
वैसे भी,
प्रेम करना और उसे पाना दो अलग बातें हैं
इस जनम में तो तुम्हें शायद पा ना सकूँ
एक और जनम लेना है तुम्हें पाने को ....
जनम तो शायद दुबारा हो भी जाए
मगर प्रेम …
क्या दुबारा कर सकोगी...???
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