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दरकते उजाले / विजय कुमार पंत

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खाली मैदान
के बीच होती रहती है खट- पट
खोदता रहता हूँ
अपनी किस्मत
और फिर पसीने की बूंदों
से करता हूँ उम्मीद
उगने की मोती बनकर
जो अक्सर बिखर जाते है
आंधियों के थपेड़ों से और
वाष्पित हो जाते है/ मेरी इच्छाओं को
जी भर भिगोकर.
झक्क दहकती दुपहरी में भी
पसरा रहता है मेरी देहरी पर
अँधेरा
दुनिया जलाती रहती है
कहीं दूर रोज नए नए चिराग
हमारे लिए
फिर भी निश्चिन्त होकर
अंगडाई लेता है घनघोर अँधेरा
और स्वपन मष्तिष्क में अंकित हो जाते है
भित्तिचित्र बनकर
मीलों दूर खड़ी रौशनी को देखकर
टस से मस तक नहीं होता/

रौशनी
जो न कभी आई और न ही आयेगी
शायद हम सूरज नहीं
चंद्रमा बनने की कवायद में जीते रहे अब तक...
और हक़ भी नहीं रहा हमारा
एक अदद
भोर की उजली किरण पर..
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