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|रचनाकार=लीलाधर मंडलोई
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<poem>

जिन घरों में गरीबी नृत्‍यमग्‍न हो
भूख अधिक जगह घेरती है
कोई और जुगाड़ न होने पर
गुल्‍लक के पैसे निकल पड़ते हैं
मोटे और सस्‍ते अनाज के लिए
वे सब्जियों की दुकान को दूर से ताकते हैं

ऐसे लोग भागते हैं अंतिम सहारे की सिम्‍त
उनकी निगाहें ढूंढती हैं
जंगली भाजियां, कंदमूल और फल

वे आम की गुठलियां बटोरते हैं जतन से
या मौसम के हिसाब से महुए
मुसीबत में जिनकी रोटियां बनाई जा सकें

कभी-कभार हार के जंगली बेर ले आते हैं
और उन्‍हें उबालकर नमक-मिर्च के संग
या ऐसे ही खा लेते हैं
भूख को परास्‍त करने के लिए

बाजार उनको संदेह से देखता है
और बेरहमी से गुल्‍लक के पैसे हड़पकर
ज्‍वार या मक्‍के का
पाई-दो-पाई अनाज थमा देता है
बाज-दफा उसे पीसते-पिसाते रात हो जाती है
और पीछा करती हैं
भूख में बच्‍चों की रोती आवाजें

ऐसे वक्‍त में काम आते हैं
जंगल से संग-साथ आए सहिष्‍णु करौंदे
उन्‍हें बस हरी मिर्च और नमक चाहिए
अपनी आत्‍मीय भूमिका के लिए
और कमाल देखिए कि भूख के तांडव में जबकि याद नहीं रहती स्‍वाद की सुध

यदि करौंदे की खट-मिट्ठी चटनी हो
मिर्ची के साथ
कैसे जीभ को भर देती है
रस के धारों से

फिर ज्‍वार के हो
या मक्‍के के मोटे रोट
भर देते हैं गरीब-गुरबों को
अपूर्व तृप्ति से

अगर बचे हों जंगल
बचे रहेंगे उनके निःशुल्‍क उपहार

और इस तरह
गरीब अपनी लड़ाई लड़ते हुए
कि उनकी बंद आंखों में घूमता है बच्‍चों का भविष्‍य
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