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|रचनाकार=गोबिन्द प्रसाद
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<poem>

छलकने लगी है अब
आँखों से तनहाई
पलकों पर सजाए
सराबों का मंज़र
न जाने किस ख़ाब की दहलीज़ पर
मैं बेख़ुदी का मुजस्सिमा बन जाऊँ
मुझे लील लेने वाला
टूटा हुआ चाँद
तुम्हारे घुँघराले केशों और
घर की मुँडेरों के इतना क़रीब
पहले कभी नहीं दिखा था
आसमान मेरी नींद में
बार-बार धरती पर टेक बन छाना चाहता है
समुद्र दु:ख की नीली चादर-सा
मुझमें समा रहा है
समा रहा है मुझमें अणु-सा दिगन्त
मुझे नीले हिसारों से दूर ले चलो
नादीद हवाओं की गोद में
जहाँ हर साँस में तब्दील हो रहा है
समय को परिभाषित करने वाला
कोई अजन्मा सितारा ।
<poem>
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