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हूक / गोबिन्द प्रसाद

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कविताएँ ऐसे नहीं आती हैं
जैसे चिलम में आँच

वे सुलगती रहती हैं दिनों-दिन चुपचाप
इतना चुपचाप कि हवा भी गुज़रती है उधर से
तो लौटती है पहले से ज़्यादह उदासी लिए
सहमी,थकी,ख़ामोश और निढाल
अनुभव की भट्ठी में
शब्द पहले कोयला
फिर कार्बन और फिर कुन्दन बन झलकता है
तब कहीं जाकर दर्द का फूल
नज़र में लहकता है

कविताएँ आती हैं तो आँखों से
अब ढलके हुए ख़ुश्क आँसुओं की तरह
वे आती हैं उन ज़िद्दीस सुबुकगाम बच्चों की तरह
जो रो नहीं सके अपनी नींद में

और;अब कविताएँ आती हैं
तो ऐसे जैसे कोई गूँज बनकर रहता है अपने गुम्बद में
और;अब कविताएँ इतना क़रीब सुनाई देती हैं
जैसे घिसटते हुए पाँव बढ़ते हैं ज़हमत की तरफ़

कविताएँ किसी खण्डहर के दिल से
उठती हुई हूक हैं
इतिहास की सिसकी हैं
जो हवा के परस से लय में बदल
धरती के माथे पर झमक भी सकती हैं

<poem>
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