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वह अकेली नहीं है
सारा परिवार है उसके साथ ,
संजोए हुए आंखों में अवकाश,
देखते हुए दिवास्वप्न --
मेहनत से निजात का,
पर, वह युगों दूर है
वह पूरी धोबन बनती है
इसी दिन,
कुशल रसोइयां,मेहनतकश महरी बनती है
इसी दिन,
इसी दिन, वह सास-ससुर
जेठ-जेठानियों के सामने
लगाती है अपने
सेवा-भाव की प्रदर्शनी ,
पति की नज़रें तौलती हैं उसे
एक सम्पूर्ण गृहस्थन के रूप में
पति की नज़रों में
बनी-ठनी रहने के लिए
सप्ताह-भर --
उसे खरा उतरना होता है
अप्सरा बनकर,
परिवार में अपनी झकडा झकड़ा जड़ें
झकड़ी-तगड़ी बनानी होती है
ममता की वेदी पर चढ़ कर,चढ़कर 
आज बहुत-कुछ बनने का
साप्ताहिक पर्व है उसका,
वह इसे भरसक मनाएगी आज
और मनाती जाएगी पूरे साल
कम से कम बावन बार.